Sunday, June 6, 2010

नेपाल का इतिहास


नेपाल का इतिहास भारतीय साम्राज्यों से प्रभावित हुआ पर यह दक्षिण एशिया का एकमात्र देश था जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद से बचा रहा । हँलांकि अंग्रेजों से हुई लड़ाई (1814-16) और उसके परिणामस्वरूप हुई संधि में तत्कालीन नेपाली साम्राज्य के अर्धाधिक भूभाग ब्रिटिश इंडिया के तहत आ गए और आज भी ये भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल के अंश हैं ।

प्रागैतिहासिक काल
२ आर्यों का आगमन
३ भारतीय साम्राज्यों का प्रभाव
४ मध्यकाल
५ एकीकरण
५.१ अंग्रेज़ों से संघर्ष
६ राजशाही
७ २१वीं सदी और प्रजातंत्र
८ संदर्भ
९ बाहरी कड़ियाँ

प्रागैतिहासिक काल
हिमालय क्षेत्र मे मनुष्यों का आगमन लगभग ९,००० वर्ष पहले होने के तथ्य की पुष्टि काठमाण्डौ उपत्यका में पाये गये नव पाषाण औजारौं से होती है। सम्भवतः तिब्बती-बर्मीज मूल के लोग नेपाल मे २,५०० वर्ष पहले आ चुके थे।[१]
आर्यों का आगमन
१५०० ईशा पूर्व के आसपास इन्डो-आर्यन जतियों ने काठमाण्डौ उपत्यका में प्रवेश किया । करीब १००० ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्यसंगठन बनें । सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व ५६३–४८३) शाक्य वंश के राजकुमार थे, जिन्होंने अपना राजकाज त्याग कर तपस्वी का जीवन निर्वाह किया और वह बुद्ध बन गए।

भारतीय साम्राज्यों का प्रभाव
२५० ईशा पुर्व तक ईस क्षेत्र मे उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य का प्रभाव पडा और बाद में ४थी शताब्दी मे गुप्तवंश के अधीन में कठपुतली राज्य हो गया। इस क्षेत्र मे ५वी शताब्दी के उत्तरार्ध मे आकर वैशाली के लिच्छवियो के राज्य की स्थापना हुई । ८वी शताव्दी के उत्तरार्ध मे लिच्छवि वंश का अस्त हो गया और सन् ८७९ से नेवार (नेपाल की एक जाति) युग का उदय हुआ, फिर भी इन लोगों का नियन्त्रण देशभर मे कितना बना था, इसका आकलन कर पाना मुश्किल है। ११वी शताब्दी के उत्तरार्ध मे दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव नेपाल के दक्षिणी भूभाग मे दिखा । चालुक्यों के प्रभाव मे आकर उस समय राजाओ ने बुद्धधर्म को छोडकर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल मे धार्मिक परिवर्तन होने लगा।


पाटन का हिन्दू मन्दिर, तीन प्राचीन राज्य मध्येका एककी राजधानी
१९२० की नेपाली राजशाहीमध्यकाल
१३वीं शताव्दि के पूर्वार्ध मे संस्कृत शब्द मल्ल का थर वाले वंश का उदय होने लगा। २०० वर्ष में इन राजाऔं ने शक्ति एकजुट कीा। १४वीं शताब्दी के उत्तरार्ध मे देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। लेकिन यह एकीकरण कम समय तक ही टिक सका: १४८२ में यह राज्य तीन भाग मे विभाजित हो गया - कान्तिपुर, ललितपुर, और भक्तपुर – जिसके बीचमे शताव्दियौं तक मेल नही हो सका।

एकीकरण
१७६५मे, गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के छोटे छोटे बाइसे व चोबिसे राज्यके उपर चढाँइ करतेहुए एकिकृत किया, बहुत ज्यादा रक्तरंजित लडाँईयौं पश्वात उन्हौने ३ वर्ष बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ के राजाओं को हराया और अपने राज्य का नाम गोरखा से नेपाल मे परिवर्तित किया। तथापि उन्हे कान्तिपुर विजय मे कोई युद्ध नही करना पड़ा। वास्तव में, उस समय इन्द्रजात्रा पर्व मे कान्तिपुर की सभी जनता फसल के देवता भगवान इन्द्र की पूजा और महोत्सव (जात्रा) मना रहे थे, जब पृथ्वी नारायण शाह ने अपनी सेना लेकर धावा बोला और सिंहासन कब्जा कर लिया। इस घटना को आधुनिक नेपाल का जन्म भी कहते है।

अंग्रेज़ों से संघर्ष
तिब्बत से हिमाली (हिमालयी) मार्ग के नियन्त्रण के लिए हुवा विवाद और उसके पश्चात युद्ध में तिब्बत की सहायता के लिए चीन के आने के बाद नेपाल पीछे हट गया। नेपाल की सीमा के नजदीक का छोटे-छोटे राज्यों को हड़पने के कारण से शुरु हुवा विवाद ब्रिटिस इस्ट इण्डिया कम्पनि के साथ दुश्मनी का कारण बना । इसी वजह से १८१४–१६ रक्तरंजित एङ्गलो-नेपाल युद्ध हो गया, जिसमे नेपाल को अपनी दो तिहाई भूभाग से हाथ धोना पड़ा लेकिन अपनी सार्वभौमसत्ता और स्वतन्त्रता कायम रखा। भारत वर्ष में यही एक खण्ड है जो कभी भी किसी बाहरी सामन्तौं (उपनिवेशों) के अधीन में नही आया। विलायत से लड्ने में पस्चिम मे सतलज से पुर्व में टिष्टा नदी तक फैला हुवा बिशाल नेपाल सुगौली सन्धि के बाद पस्चिम में महाकाली और मेची नदियों के बीच सिमट गया लेकिन अपनी स्वाधीनत को बचाए रखने में नेपाल सफल रहा, बाद मे अंग्रेजो ने १८२२ मे मेची नदी व राप्ती नदी के बीच की तराई का हिस्सा नेपाल को वापस किया उसी तरह १८६० मे राणा प्रधानमन्त्री जंगबहादुर से खुश होकर अंग्रेजो ने राप्तीनदी से माहाकाली नदी के बीच का तराई का थोडा और हिस्सा नेपाल को लौटाया । लेकिन सुगौली सन्धी के बाद नेपाल ने जमीन का बहुत बडा हिस्सा गँवा दिया यह क्षेत्र अभी उत्तराञ्चल राज्य और हिमाञ्चल प्रदेश और पञ्जाबी पहाडी राज्य मै सम्मिलित है। पूर्व मै दार्जीलिङ और उसके आसपासका नेपाली मूल के लोगों का भूमि (जो अब पश्चिम बंगाल मे है) भी ब्रिटिस इन्डिया के अधीन मे हो गया तथा नेपाल कासिक्किम के उपरका प्रभाव और शक्ति भी नेपाल को त्यागना पडा।

राजशाही
राज परिवार व भारदारोके विच गुटबन्दी की वजहसे युद्धके बाद अस्थायित्व कायम हुवा। शन् १८४६मा शासन कररही रानीकी सेनानायक जङ्गबहादुर राणाको पदच्युत करने षडयन्त्रकी खुलासा होनेसे कोतपर्व नामका नरसंहार हुवा। हतियारधारी सेना व रानीकेप्रति वफादार भाइ-भारदाररोकेविच मारकाट चलनेसे देशके सयौँ राजखलाक, भारदारलोग व दुसरे रजवाडो का हत्याहुवा। जङ्गबहादुरकी जितके बाद राणा खानदान उन्होने सुरुकिया व राणा शासन लागु किया। राजाको नाममात्रमे सिमित किया व प्रधानमन्त्री पदको सक्तिशाली वंशानुगत किया गया। राणाशासक पूर्णनिष्ठाके साथ ब्रिटिसके पक्षमे रहतेथे व ब्रिटिसशासकको १८५७की सेपोई रेबेल्योन (प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम), व बादमे दोनो विश्व युद्धसहयोग कियाथा। शन् १९२३मे संयुक्त अधिराज्य व नेपाल विच आधिकारिक रुपमे मित्रताकी सम्झौतामे हस्ताक्षर हुवा, जिसमे नेपलकी स्वतन्त्रता को संयुक्त अधिराज्य ने स्वीकार किया । दक्षिण एशियाई मुल्कों में पहला, नेपाली राजदुतावास ब्रिटेन की राजधानी लंडन मे खुल गया ।

१९४० दशक के उत्तरार्ध मे लोकतन्त्र-समर्थित आन्दोलनों का उदय होने लगा व राजनैतिक पार्टियां राणा शासनके विरुद्ध में हो गए। उसी समय चीन ने १९५० में तिब्बत पर कब्जा कर लिया जिसकी वजहसे बढ़ती हुई सैनिक गतिविधि को टालने के लिए भारत नेपाल की स्थायित्व पर चाख बनाने लगा । फलस्वरुप राजा त्रिभूवन को भारत ने समर्थन किया १९५१ में सत्ता लेने में सहयोग किया, नयाँ सरकार का निर्माण हो गया, जिसमें ज्यादा आन्दोलनकारी नेपाली कङ्ग्रेस पार्टि के लोगो की सहभागिता थी। राजा व सरकार के बीच वर्षों की शक्ति खींचातानी के पश्चात, १९५९मे राजा महेन्द्र ने लोकतान्त्रिक अभ्यास अन्त किया व "निर्दलिय" पञ्चायत व्यवस्था लागु करके राज किया। सन् १९८९के "जनआन्दोलन"ने राजतन्त्रको सांवैधानिक सुधार करने व बहुदलिय संसद बनाने का वातवरणा बनगया सन १९९०मा कृष्णप्रशाद भट्टराई अन्तरिम सरकारके प्रधानमन्त्री बनगए, नयाँ संविधानका निर्माण हुवा राजा बीरेन्द्र ने १९९० मे नेपालके इतिहासमे दूसरा प्रजातन्त्रिक बहुदलीय संबिधान जारी किया [२] व अन्तरिम सरकार ने संसद के लिए प्रजातान्त्रिक चुनाव करवाए । नेपाली कङ्ग्रेसल ने राष्ट्र की दुसरी प्रजातन्त्रीक चुनाव मे बहुमत प्राप्त किया व गिरिजाप्रशाद कोइराला प्रधानमन्त्री बने।

२१वीं सदी और प्रजातंत्र
इक्कसवीं सदी की शुरुआत में नेपाल में माओवादियों का आन्दोलन तेज होता गया । मधेशियों के मुद्दे पर भी आन्दोलन हुए । अन्त में सन् 2008 में राजा ज्ञानेन्द्र ने प्रजातांत्रिक चुनाव करवाए जिसमें माओवादियों को बहुमत मिला और प्रचण्ड नेपाल के प्रधानमंत्री बने और मधेशी नेता रामबरन यादव ने राष्ट्रपति का कार्यभार सम्हाला ।

निरन्तर रुप से राजा-रजवाड़ों के अधीन में रहकर फूट और मिलन का लम्बा तथा सम्पन्न इतिहास वाला, हाल में नेपाल के नाम से प्रसिद्ध, यह भूखण्ड में विक्रम संवत २०४६ साल के आन्दोलन के पश्चात संवैधानिक राजतन्त्र की नीति से अवलम्बित हुवा। लेकिन इसके पश्चात भी राजसंस्था एक महत्त्वपूर्ण तथा अस्पष्ट परिधि एवम् शक्ति सम्पन्न संस्था के रूप मे प्रस्तुत हुवा। इस व्यवस्था मे पहले संसदीय अनिश्चितता तथा सन् १९९६ से ने.क.पा.(माओवादी) के जनयुद्ध के कारण से राष्ट्रिय अनिश्चितता दिख्ने लगा। माओवादिओं ने राजनीति के मूलाधार से पृथक भूमिगत रुप से राजतन्त्र तथा मूलाधार के राजनैतिक दलों के विरुद्ध में गुरिल्ला युद्ध सञ्चालन कर दिया। उन्होंने नेपाल की सामन्ती व्यवस्था (उन के अनुसार इसमें राजतन्त्र भी शामिल है) फेंक कर एक माओवादी राष्ट्र स्थापना करने का प्रण किया । इसी कारण से नेपाली गृहयुद्ध शुरु हो गया जिसके कारण १३,००० लोगों की जान गई । इसी विद्रोह को दमन करने की पृष्ठभूमि में राजा ज्ञानेन्द्र ने सन् २००२ मे संसद को विघटन तथा निर्वाचित प्रधानमन्त्री को अपदस्थ करके प्रधानमन्त्री मनोनित प्रक्रिया से शासन चलाने लगे। सन् २००५मै उन्हौंने एकल रूपमै संकटकाल का घोषणा करके सब कार्यकारी शक्ति ग्रहण किया । सन् २००६ के लोकतान्त्रिक आन्दोलन (जनाअन्दोलन-२) के पश्चात राजा ने देश की सार्वभौम सत्ता जनता को हस्तान्तरित की तथा २४ अप्रैल, २००६ को संसद की पुनर्स्थापना हुई । १८ मई, २००६ को अपनी पुनर्स्थापित सार्वभौमिकता का उपयोग करके नए प्रतिनिधि सभा ने राजा के अधिकार में कटौती कर दी तथा नेपाल को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित कर दिया । नवनिर्वाचित संविधान निर्माण करने वाली संविधान सभा की पहली बैठक द्वारा २८ मई, २००८ मे नेपाल को आधिकारिक रूप मे एक सन्घीय गणतन्त्रात्मक राष्ट्र घोषित किया गया।

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